तुम खोजते रहे मुझे यूँ ही दिन भर
मैं तो सदा से थी तुम्हारी हमसफ़र
पेड़ों की छाया की शीतलता में
सागर की लहरों की चपलता में
स्मारकों के मूक वीराने में बसी
सूरज की किरणों में छुपी
मैं कहाँ नहीं थी
...बार बार आई मैं बन के ख्याल
तड़प और अहसास
तुम्हारे कदमो की शक्ति
तुम्हारी भुजाओं का बल
तुम्हारे ह्रदय की स्निग्धता
तुम्हारी खोज का चिंतन
तुम्हारे प्राणों का स्पंदन....
अब भी पूछते हो...मैं कहाँ हूँ ????
या शायद मैं चाहती हूँ...ऐसा पूछो तुम
तुम व्यस्त हो अब भी मगर
करने को उत्सुक पार ये डगर
जब जा पहुंचोगे उस शिखर के ऊपर
तब सम्भवत: सोचो यह सब ...पर ये तो
शब्द हैं बिखर जायेंगे तब तक ...मेरी तरह !!!
- Manjula Saxena
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